April 27, 2010

"वीर" - रामधारी सिंह 'दिनकर'

"वीर"

सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं सच् है , विपत्ति जब आती है ,
कायर को ही दहलाती है ,
सूरमा नहीं विचलित होते ,
क्षण एक नहीं धीरज खोते ,
विघ्नों को गले लगाते हैं ,
कांटों में राह बनाते हैं ।

मुहँ से न कभी उफ़ कहते हैं ,
संकट का चरण न गहते हैं ,
जो आ पड़ता सब सहते हैं ,
उद्योग - निरत नित रहते हैं ,
शुलों का मूळ नसाते हैं ,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं ।

है कौन विघ्न ऐसा जग में ,
टिक सके आदमी के मग में ?
ख़म ठोंक ठेलता है जब नर
पर्वत के जाते पाव उखड़ ,
मानव जब जोर लगाता है ,
पत्थर पानी बन जाता है ।

गुन बड़े एक से एक प्रखर ,
हैं छिपे मानवों के भितर ,
मेंहदी में जैसी लाली हो ,
वर्तिका - बीच उजियाली हो ,
बत्ती जो नहीं जलाता है ,
रोशनी नहीं वह पाता है ।

[ रचनाकार: - रामधारी सिंह 'दिनकर' ]

April 24, 2010

"सिपाही" - रामधारी सिंह 'दिनकर'

"सिपाही"

वनिता की ममता न हुई, सुत का न मुझे कुछ छोह हुआ,
ख्याति, सुयश, सम्मान, विभव का, त्यों ही, कभी न मोह हुआ।
जीवन की क्या चहल-पहल है, इसे न मैने पहचाना,
सेनापति के एक इशारे पर मिटना केवल जाना।

मसि की तो क्या बात? गली की ठिकरी मुझे भुलाती है,
जीते जी लड़ मरूं, मरे पर याद किसे फिर आती है?
इतिहासों में अमर रहूँ, है एसी मृत्यु नहीं मेरी,
विश्व छोड़ जब चला, भुलाते लगती फिर किसको देरी?

जग भूले पर मुझे एक, बस सेवा धर्म निभाना है,
जिसकी है यह देह उसी में इसे मिला मिट जाना है।
विजय-विटप को विकच देख जिस दिन तुम हृदय जुड़ाओगे,
फूलों में शोणित की लाली कभी समझ क्या पाओगे?

वह लाली हर प्रात क्षितिज पर आ कर तुम्हे जगायेगी,
सायंकाल नमन कर माँ को तिमिर बीच खो जायेगी।
देव करेंगे विनय किंतु, क्या स्वर्ग बीच रुक पाऊंगा?
किसी रात चुपके उल्का बन कूद भूमि पर आऊंगा।

तुम न जान पाओगे, पर, मैं रोज खिलूंगा इधर-उधर,
कभी फूल की पंखुड़ियाँ बन, कभी एक पत्ती बन कर।
अपनी राह चली जायेगी वीरों की सेना रण में,
रह जाऊंगा मौन वृंत पर, सोच न जाने क्या मन में!

तप्त वेग धमनी का बन कर कभी संग मैं हो लूंगा,
कभी चरण तल की मिट्टी में छिप कर जय जय बोलूंगा।
अगले युग की अनी कपिध्वज जिस दिन प्रलय मचाएगी,
मैं गरजूंगा ध्वजा-श्रंग पर, वह पहचान न पायेगी।

'न्यौछावर मैं एक फूल पर', जग की ऎसी रीत कहाँ?
एक पंक्ति मेरी सुधि में भी, सस्ते इतने गीत कहाँ?

कविते! देखो विजन विपिन में वन्य कुसुम का मुरझाना,
व्यर्थ न होगा इस समाधि पर दो आँसू कण बरसाना।

[ रचनाकार: - रामधारी सिंह 'दिनकर' ]

April 23, 2010

"सरिता" - गोपाल सिंह नेपाली

"सरिता"

यह लघु सरिता का बहता जल
कितना शीतल¸ कितना निर्मल¸

हिमगिरि के हिम से निकल–निकल¸
यह विमल दूध–सा हिम का जल¸
कर–कर निनाद कल–कल¸ छल–छल
बहता आता नीचे पल पल

तन का चंचल मन का विह्वल।
यह लघु सरिता का बहता जल।।

निर्मल जल की यह तेज़ धार
करके कितनी श्रृंखला पार
बहती रहती है लगातार
गिरती उठती है बार बार

रखता है तन में उतना बल
यह लघु सरिता का बहता जल।।

एकांत प्रांत निर्जन निर्जन
यह वसुधा के हिमगिरि का वन
रहता मंजुल मुखरित क्षण क्षण
लगता जैसे नंदन कानन

करता है जंगल में मंगल
यह लघु सरित का बहता जल।।

ऊँचे शिखरों से उतर–उतर¸
गिर–गिर गिरि की चट्टानों पर¸
कंकड़–कंकड़ पैदल चलकर¸
दिन–भर¸ रजनी–भर¸ जीवन–भर¸

धोता वसुधा का अन्तस्तल।
यह लघु सरिता का बहता जल।।

मिलता है उसको जब पथ पर
पथ रोके खड़ा कठिन पत्थर
आकुल आतुर दुख से कातर
सिर पटक पटक कर रो रो कर

करता है कितना कोलाहल
यह लघु सरित का बहता जल।।

हिम के पत्थर वे पिघल–पिघल¸
बन गये धरा का वारि विमल¸
सुख पाता जिससे पथिक विकल¸
पी–पीकर अंजलि भर मृदु जल¸

नित जल कर भी कितना शीतल।
यह लघु सरिता का बहता जल।।

कितना कोमल¸ कितना वत्सल¸
रे! जननी का वह अन्तस्तल¸
जिसका यह शीतल करूणा जल¸
बहता रहता युग–युग अविरल¸

गंगा¸ यमुना¸ सरयू निर्मल
यह लघु सरिता का बहता जल।।

[ रचनाकार: - गोपाल सिंह नेपाली ]

April 21, 2010

"उत्तर नहीं हूँ" - डॉ. धर्मवीर भारती

"उत्तर नहीं हूँ"

उत्तर नहीं हूँ
मैं प्रश्न हूँ तुम्हारा ही !

नये-नये शब्दों में तुमने
जो पूछा है बार-बार
पर जिस पर सब के सब केवल निरुत्तर हैं
प्रश्न हूँ तुम्हारा ही !

तुमने गढ़ा है मुझे
किन्तु प्रतिमा की तरह स्थापित नहीं किया
या
फूल की तरह
मुझको बहा नहीं दिया
प्रश्न की तरह मुझको रह-रह दोहराया है
नयी-नयी स्थितियों में मुझको तराशा है
सहज बनाया है
गहरा बनाया है
प्रश्न की तरह मुझको
अर्पित कर डाला है
सबके प्रति
दान हूँ तुम्हारा मैं
जिसको तुमने अपनी अंजलि में बाँधा नहीं
दे डाला !
उत्तर नहीं हूँ मैं
प्रश्न हूँ तुम्हारा ही !

[ रचनाकार: - डॉ. धर्मवीर भारती ]

April 17, 2010

"शक्ति और क्षमा" - रामधारी सिंह 'दिनकर'

"शक्ति और क्षमा"

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ कब हारा ?

क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुये विनत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।

अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।

क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो ।

तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे ।

उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से ।

सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की
बँधा मूढ़ बन्धन में।

सच पूछो , तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की ।

सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।

[ रचनाकार: - रामधारी सिंह 'दिनकर' ]

April 14, 2010

"वातायन" - रामधारी सिंह 'दिनकर'

"वातायन"

मैं झरोखा हूँ।
कि जिसकी टेक लेकर
विश्व की हर चीज बाहर झाँकती है।

पर, नहीं मुझ पर,
झुका है विश्व तो उस जिन्दगी पर
जो मुझे छूकर सरकती जा रही है।

जो घटित होता है, यहाँ से दूर है।
जो घटित होता, यहाँ से पास है।

कौन है अज्ञात ? किसको जानता हूँ ?

और की क्या बात ?
कवि तो अपना भी नहीं है।

[ रचनाकार: - रामधारी सिंह 'दिनकर' ]

April 11, 2010

"उतरी शाम" - डॉ. धर्मवीर भारती

"उतरी शाम"

झुरमुट में दुपहरिया कुम्हलाई
खोतों पर अँधियारी छाई
पश्चिम की सुनहरी धुंधराई
टीलों पर, तालों पर
इक्के दुक्के अपने घर जाने वालों पर
धीरे-धीरे उतरी शाम !

आँचल से छू तुलसी की थाली
दीदी ने घर की ढिबरी बाली
जमुहाई ले लेकर उजियाली
जा बैठी ताखों में
धीरे-धीरे उतरी शाम !

इस अधकच्चे से
घर के आंगन
में जाने क्यों इतना आश्वासन
पाता है यह मेरा टूटा मन
लगता है इन पिछले वर्षों में
सच्चे झूठे संघर्षों में
इस घर की छाया थी छूट गई अनजाने
जो अब छुककर मेरे सिराहने
कहती है
" भटको बेबात कहीं
लौटोगे अपनी हर यात्रा के बाद यहीं !"
धीरे धीरे उतरी शाम !

[ रचनाकार: - डॉ. धर्मवीर भारती ]

April 10, 2010

"तुम कनक किरन" - जयशंकर प्रसाद

"तुम कनक किरन"

तुम कनक किरन के अंतराल में
लुक छिप कर चलते हो क्यों ?


नत मस्तक गवर् वहन करते
यौवन के घन रस कन झरते
हे लाज भरे सौंदर्य बता दो
मोन बने रहते हो क्यो?


अधरों के मधुर कगारों में
कल कल ध्वनि की गुंजारों में
मधु सरिता सी यह हंसी तरल
अपनी पीते रहते हो क्यों?


बेला विभ्रम की बीत चली
रजनीगंधा की कली खिली
अब सांध्य मलय आकुलित दुकूल
कलित हो यों छिपते हो क्यों?

[ रचनाकार: - जयशंकर प्रसाद ]

April 7, 2010

"मनुष्यता" - रामधारी सिंह 'दिनकर'

 "मनुष्यता"

है बहुत बरसी धरित्री पर अमृत की धार;
पर नहीं अब तक सुशीतल हो सका संसार|
भोग लिप्सा आज भी लहरा रही उद्दाम;
बह रही असहाय नर कि भावना निष्काम|
लक्ष्य क्या? उद्देश्य क्या? क्या अर्थ?
यह नहीं यदि ज्ञात तो विज्ञानं का श्रम व्यर्थ|
यह मनुज, जो ज्ञान का आगार;
यह मनुज, जो सृष्टि का श्रृंगार |
छद्म इसकी कल्पना, पाखण्ड इसका ज्ञान;
यह मनुष्य, मनुष्यता का घोरतम अपमान|

[ रचनाकार: - रामधारी सिंह 'दिनकर' ]

April 3, 2010

"गाँधी" - रामधारी सिंह 'दिनकर'

"गाँधी"

देश में जिधर भी जाता हूँ,
उधर ही एक आह्वान सुनता हूँ
"जडता को तोडने के लिए
भूकम्प लाओ।
घुप्प अँधेरे में फिर
अपनी मशाल जलाओ।
पूरे पहाड हथेली पर उठाकर
पवनकुमार के समान तरजो।
कोई तूफान उठाने को
कवि, गरजो, गरजो, गरजो !"

सोचता हूँ, मैं कब गरजा था?
जिसे लोग मेरा गर्जन समझते हैं,
वह असल में गाँधी का था,
उस गाँधी का था, जिस ने हमें जन्म दिया था।

तब भी हम ने गाँधी के
तूफान को ही देखा,
गाँधी को नहीं।

वे तूफान और गर्जन के
पीछे बसते थे।
सच तो यह है
कि अपनी लीला में
तूफान और गर्जन को
शामिल होते देख
वे हँसते थे।

तूफान मोटी नहीं,
महीन आवाज से उठता है।
वह आवाज
जो मोम के दीप के समान
एकान्त में जलती है,
और बाज नहीं,
कबूतर के चाल से चलती है।

गाँधी तूफान के पिता
और बाजों के भी बाज थे।
क्योंकि वे नीरवताकी आवाज थे।

[ रचनाकार: - रामधारी सिंह 'दिनकर' ]

April 1, 2010

"अंतिम बूँद" - गोपालदास "नीरज"

"अंतिम बूँद"

अंतिम बूँद बची मधु को अब जर्जर प्यासे घट जीवन में।
मधु की लाली से रहता था जहाँविहँसता सदा सबेरा,
मरघट है वह मदिरालय अब घिरा मौत का सघन अंधेरा,
दूर गए वे पीने वाले जो मिट्टी के जड़ प्याले में-
डुबो दिया करते थे हँसकर भाव हृदय का 'मेरा-तेरा',
रूठा वह साकी भी जिसने लहराया मधु-सिन्धु नयन में।
अंतिम बूँद बची मधु को अब जर्जर प्यासे घट जीवन में॥

अब न गूंजती है कानों में पायल की मादक ध्वनि छम छम,
अब न चला करता है सम्मुख जन्म-मरण सा प्यालों का क्रम,
अब न ढुलकती है अधरों से अधरों पर मदिरा की धारा,
जिसकी गति में बह जाता था, भूत भविष्यत का सब भय, भ्रम,
टूटे वे भुजबंधन भी अब मुक्ति स्वयं बंधती थी जिन में॥

जीवन की अंतिम आशा सी एक बूँद जो बाकी केवल,
संभव है वह भी न रहे जब ढुलके घट में काल-हलाहल,
यह भी संभव है कि यही मदिरा की अंतिम बूँद सुनहली-
ज्वाला बन कर खाक बना दे जीवन के विष की कटु हलचल,
क्योंकि आखिरी बूँद छिपाकर अंगारे रखती दामन में
अंतिम बूँद बची मधु की अब जर्जर प्यासे घट जीवन में॥

जब तक बाकी एक बूँद है तब तक घट में भी मादकता,
मधु से धुलकर ही तो निखरा करती प्याले की सुन्दरता,
जब तक जीवित आस एक भी तभी तलक साँसों में भी गति,
आकर्षण से हीन कभी क्या जी पाई जग में मानवता?
नींद खुला करती जीवन की आकर्षण की छाँह शरण में।
अंतिम बूँद बची मधु की अब जर्जर प्यासे घट जीवन में॥

आज हृदय में जाग उठी है वह व्याकुल तृष्णा यौवन की,
इच्छा होती है पी डालूं बूँद आखिरी भी जीवन की,
अधरों तक ले जाकर प्याला किन्तु सोच यह रुक जाता हूँ,
इसके बाद चलेगी कैसे गति प्राणों के श्वास-पवन को,
और कौन होगा साथी जो बहलाए मन दिन दुर्दिन में।
अंतिम बूँद बची मधु की अब जर्जर प्यासे घट जीवन में॥

मानव! यह वह बूँद कि जिस पर जीवन का सर्वस्व निछावर,
इसकी मादकता के सम्मुख लज्जित मुग्धा का मधु-केशर,
यह वह सुख की साँस आखिरी जिसके सम्मुख हेय अमरता-
यह वह जीवन ज्योति-किरण जो चीर दिया करती तम का घर,
अस्तु इसे पी जा मुस्कुराकर मुस्काए चिर तृषा मरण में।
अंतिम बूँद बची मधु की अब जर्जर प्यासे घट जीवन में॥

किन्तु जरा रुक ऐसे ही यह बूँद मधुरतम मत पी जाना;
इसमें वह मादकता है जो पीकर जगबनता दीवाना,
इससे इसमें वह जीवन विष की एक बूँद तू और मिला ले,
सीख सके जिससे हँस हँसकर मधु के संग विष भी अपनाना,
मधु विष दोनों ही झरते हैं जीवन के विस्तृत आँगन में।
अंतिम बूँद बची मधु की अब जर्जर प्यासे घट जीवन में॥

[ रचनाकार: - गोपालदास "नीरज" ]