January 31, 2010

"हाय, अलीगढ़ !" - बाबा नागार्जुन

"हाय, अलीगढ़ !"
हाय, अलीगढ़!
हाय, अलीगढ़!
बोल, बोल, तू ये कैसे दंगे हैं
हाय, अलीगढ़!
हाय, अलीगढ़!
शान्ति चाहते, सभी रहम के भिखमंगे हैं
सच बतलाऊँ?
मुझको तो लगता है, प्यारे,
हुए इकट्ठे इत्तिफ़ाक से, सारे हो नंगे हैं
सच बतलाऊँ?
तेरे उर के दुख-दरपन में
हुए उजागर
सब कोढ़ी-भिखमंगे हैं
फ़िकर पड़ी, बस, अपनी-अपनी
बड़े बोल हैं
ढमक ढोल हैं
पाँच स्वार्थ हैं पाँच दलों के
हदें न दिखतीं कुटिल चालाकी
ओर-छोर दिखते न छलों के
बत्तिस-चौंसठ मनसूबे हैं आठ दलों के

[ रचनाकार: - बाबा नागार्जुन ]

January 29, 2010

"एक तिनका" - अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

" एक तिनका "
मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ,
एक दिन जब था मुंडेरे पर खड़ा।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ,
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।

मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा,
लाल होकर आँख भी दुखने लगी।
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे,
ऐंठ बेचारी दबे पॉंवों भागने लगी।

जब किसी ढब से निकल तिनका गया,
तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिए।
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा,
एक तिनका है बहुत तेरे लिए।
[ रचनाकार: - अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ]

January 25, 2010

"सत्य" - बाबा नागार्जुन

"सत्य"
सत्य को लकवा मार गया है
वह लंबे काठ की तरह
पड़ा रहता है सारा दिन, सारी रात
वह फटी-फटी आँखों से
टुकुर-टुकुर ताकता रहता है सारा दिन, सारी रात
कोई भी सामने से आए-जाए
सत्य की सूनी निगाहों में जरा भी फ़र्क नहीं पड़ता
पथराई नज़रों से वह यों ही देखता रहेगा
सारा-सारा दिन, सारी-सारी रात

सत्य को लकवा मार गया है
गले से ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सोचना बंद
समझना बंद
याद करना बंद
याद रखना बंद
दिमाग़ की रगों में ज़रा भी हरकत नहीं होती
सत्य को लकवा मार गया है
कौर अंदर डालकर जबड़ों को झटका देना पड़ता है
तब जाकर खाना गले के अंदर उतरता है
ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सत्य को लकवा मार गया है

वह लंबे काठ की तरह पड़ा रहता है
सारा-सारा दिन, सारी-सारी रात
वह आपका हाथ थामे रहेगा देर तक
वह आपकी ओर देखता रहेगा देर तक
वह आपकी बातें सुनता रहेगा देर तक
लेकिन लगेगा नहीं कि उसने आपको पहचान लिया है

जी नहीं, सत्य आपको बिल्कुल नहीं पहचानेगा
पहचान की उसकी क्षमता हमेशा के लिए लुप्त हो चुकी है
जी हाँ, सत्य को लकवा मार गया है
उसे इमर्जेंसी का शाक लगा है
लगता है, अब वह किसी काम का न रहा
जी हाँ, सत्य अब पड़ा रहेगा
लोथ की तरह, स्पंदनशून्य मांसल देह की तरह!

[ रचनाकार: - बाबा नागार्जुन ]

January 21, 2010

" कालिदास, सच-सच बतलाना !" - बाबा नागार्जुन

" कालिदास, सच-सच बतलाना !"
इंदुमती के मृत्यु -शोक से
अज रोया या तुम रोए थे ?
कालिदास, सच-सच बतलाना!
शिवजी की तीसरी आँख से
निकली हुई महाज्वाला में
घृतमिश्रित सूखी समिधा सम
तुमने ही तो दृग धोए थे
कालिदास, सच-सच बतलाना !
रति रोई या तुम रोए थे?
वर्षा -ऋतु की स्निग्ध भूमिका
प्रथम दिवस आषाढ़ मास का
देख गगन में श्याम घनघटा
विधुर यक्ष का मन जब उचटा
चित्रकूट के सुभग शिखर पर
खड़े-खड़े तब हाथ जोड़कर
उस बेचारे ने भेजा था
जिनके ही द्वारा संदेशा,
उन पुष्करावर्त मेघों का
साथी बनकर उड़ने वाले
कालिदास, सच-सच बतलाना !
पर-पीड़ा से पूर-पूर हो
थक-थक कर औ ' चूर-चूर हो
अमल-धवलगिरि के शिखरों पर
प्रियवर तुम कब तक सोए थे ?
कालिदास, सच-सच बतलाना !
रोया यक्ष कि तुम रोए थे ?

[ रचनाकार: - बाबा नागार्जुन ]

January 13, 2010

"बरफ़ पड़ी है" - बाबा नागार्जुन

"बरफ़ पड़ी है"
बरफ़ पड़ी है
सर्वश्वेत पार्वती प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है
सजे सजाए बंगले होंगे
सौ दो सौ चाहे दो एक हज़ार
बस मुठ्ठी भर लोगों द्वारा यह नगण्य शृंगार
देवदारूमय सहस बाहु चिर तरुण हिमाचल कर सकता है क्यों कर अंगीकार

चहल पहल का नाम नहीं है
बरफ़ बरफ़ है काम नहीं है
दप दप उजली साँप सरीखी सरल और बंकिम भंगी में -
चली गईं हैं दूर-दूर तक
नीचे ऊपर बहुत दूर तक
सूनी-सूनी सड़कें
मैं जिसमें ठहरा हूँ वह भी छोटा-सा बंगला है -
पिछवाड़े का कमरा जिसमें एक मात्र जंगला है
सुबह सुबह ही
मैंने इसको खोल लिया है
देख रहा हूँ बरफ़ पड़ रही कैसे
बरस रहे हैं आसमान से धुनी रूई के फाहे
या कि विमानों में भर भर कर यक्ष और किन्नर बरसाते
कास कुसुम अविराम

ढके जारहे देवदार की हरियाली को अरे दूधिया झाग
ठिठुर रहीं उंगलियाँ मुझे तो याद आ रही आग
गरम गरम ऊनी लिबास से लैस
देव देवियाँ देख रही होंगी अवश्य हिमपात
शीशामढ़ी खिड़कियों के नज़दीक बैठकर
सिमटे सिकुड़े नौकर चाकर चाय बनाते होंगे
ठंड कड़ी है
सर्वश्वेत पार्वती प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है
बरफ़ पड़ी है

[ रचनाकार: - बाबा नागार्जुन ]

January 8, 2010

"कम्युनिज्म के पंडे" - बाबा नागार्जुन

"कम्युनिज्म के पंडे"
आ गये दिन एश के!
मार्क्स तेरी दाड़ी में जूं ने दिये होंगे अंडे
निकले हैं, उन्हीं में से कम्युनिज्म के चीनी पंडे
एक नहीं, दो नहीं तीन नहीं, बावन गंडे
लाल पान के गुलाम ढोयेंगे हंडे
सर्वहारा क्रांति की गैस के
आ गये अब तो दिन ऐश के
ठी-ठी-ठी
मचा रहे ऊधम बहोत
शांति के कपोत
पीले बिलौटे ने मार दिया पंजा
सर हुआ घायल लेनिन का गंजा
हंसता रहा लिउ शाओ ची
फी-फी-फी
[ रचनाकार: - बाबा नागार्जुन ]

January 7, 2010

"बरसों के बाद उसी सूने- आँगन में" - डॉ. धर्मवीर भारती

"बरसों के बाद उसी सूने- आँगन में"
बरसों के बाद उसी सूने- आँगन में
जाकर चुपचाप खड़े होना
रिसती-सी यादों से पिरा-पिरा उठना
मन का कोना-कोना

कोने से फिर उन्हीं सिसकियों का उठना
फिर आकर बाँहों में खो जाना
अकस्मात मंडप के गीतों की लहरी
फिर गहरा सन्नाटा हो जाना
दो गाढ़ी मेंहदीवाले हाथों का जुड़ना,
कँपना, बेबस हो गिर जाना

रिसती-सी यादों से पिरा-पिरा उठना
मन को कोना-कोना
बरसों के बाद उसी सूने-से आंगन में
जाकर चुपचाप खड़े होना!

[ रचनाकार: - डॉ. धर्मवीर भारती ]

January 4, 2010

" गुलाबी चूड़ियाँ" - बाबा नागार्जुन

"गुलाबी चूड़ियाँ"
प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,
सात साल की बच्ची का पिता तो है!
सामने गियर से उपर
हुक से लटका रक्खी हैं
काँच की चार चूड़ियाँ गुलाबी
बस की रफ़्तार के मुताबिक
हिलती रहती हैं…
झुककर मैंने पूछ लिया
खा गया मानो झटका
अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा
आहिस्ते से बोला: हाँ सा’ब
लाख कहता हूँ नहीं मानती मुनिया
टाँगे हुए है कई दिनों से
अपनी अमानत
यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने
मैं भी सोचता हूँ
क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ
किस ज़ुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?
और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा
और मैंने एक नज़र उसे देखा
छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में
तरलता हावी थी सीधे-साधे प्रश्न पर
और अब वे निगाहें फिर से हो गईं सड़क की ओर
और मैंने झुककर कहा –
हाँ भाई, मैं भी पिता हूँ
वो तो बस यूँ ही पूछ लिया आपसे
वर्ना किसे नहीं भाएँगी?
नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ!

[ रचनाकार: - बाबा नागार्जुन ]

January 2, 2010

"इन घुच्ची आँखों में" - बाबा नागार्जुन

"इन घुच्ची आँखों में"
क्या नहीं है
इन घुच्ची आँखों में
इन शातिर निगाहों में
मुझे तो बहुत कुछ
प्रतिफलित लग रहा है!
नफरत की धधकती भट्टियाँ...
प्यार का अनूठा रसायन...
अपूर्व विक्षोभ...
जिज्ञासा की बाल-सुलभ ताजगी...
ठगे जाने की प्रायोगिक सिधाई...
प्रवंचितों के प्रति अथाह ममता...
क्या नहीं झलक रही
इन घुच्ची आँखों से?
हाय, हमें कोई बतलाए तो!
क्या नहीं है
इन घुच्ची आँखों में!
[ रचनाकार: - बाबा नागार्जुन ]

January 1, 2010

"चन्दू, मैंने सपना देखा" - बाबा नागार्जुन

"चन्दू, मैंने सपना देखा"
चन्दू, मैंने सपना देखा, उछल रहे तुम ज्यों हरनौटा
चन्दू, मैंने सपना देखा, भभुआ से हूं पटना लौटा
चन्दू, मैंने सपना देखा, तुम्हें खोजते बद्री बाबू
चन्दू, मैंने सपना देखा, खेल-कूद में हो बेकाबू
चन्दू, मैंने सपना देखा, कल परसों ही छूट रहे हो
चन्दू, मैंने सपना देखा, खूब पतंगें लूट रहे हो
चन्दू, मैंने सपना देखा, तुम हो बाहर, मैं हूँ बाहर
चन्दू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कलेण्डर
चन्दू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कलेण्डर
चन्दू, मैंने सपना देखा, तुम हो बाहर, मैं हूँ बाहर
चन्दू, मैंने सपना देखा, भभुआ से पटना आए हो
चन्दू, मैंने सपना देखा, मेरे लिए शहद लाए हो
चन्दू, मैंने सपना देखा, फैल गया है सुयश तुम्हारा
चन्दू, मैंने सपना देखा, तुम्हें जानता भारत सारा
चन्दू, मैंने सपना देखा, तुम तो बहुत बड़े डाक्टर हो
चन्दू, मैंने सपना देखा, अपनी ड्यूटी में तत्पर हो
चन्दू, मैंने सपना देखा, इम्तिहान में बैठे हो तुम
चन्दू, मैंने सपना देखा, पुलिस-वैन में बैठे हो तुम
चन्दू, मैंने सपना देखा, तुम हो बाहर, मैं हूँ बाहर
चन्दू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कलेण्डर
[ रचनाकार: - बाबा नागार्जुन ]