August 28, 2010

"आस्था की प्रतिध्वनियां" - श्रीकांत वर्मा

"आस्था की प्रतिध्वनियां"

जीवन का तीर्थ बनी जीवन की आस्था।
आंसू के कलश लिए
हम तुम तक आती हैं।
हम तेरी पुत्री हैं, तेरी प्रतिध्वनियां हैं।
अपने अनागत को
हम यम के पाशों से वापस ले आने को आतुर हैं।
जीवन का तीर्थ बनी ओ मन की आस्था!
अंधकार में हमने जन्म लिया
और बढी,
रुइयों-सी हम, दैनिक द्वंद्वों में धुनी गईं।
कष्टों में बटी गईं,
सिसकी बन सुनी गईं,
हम सब विद्रोहिणियां कारा में चुनी गईं।
लेकिन कारा हमको
रोक नहीं सकती है,
रोक नहीं सकती है,
रोक नहीं सकती है!
जन-जन का तीर्थ बनी ओ जन की आस्था!

मीरा-सी जहर पिए
हम तुझ तक आती हैं।
हम सब सरिताएं हैं।
समय की धमनियां हैं,
समय की शिराएं हैं।
समय का हृदय हमको चिर-जीवित रखना है।
इसीलिए हम इतनी तेजी से दौड रहीं,
रथ अपने मोड रहीं,
पथ पिछले छोड रहीं,
परम्परा तोड रहीं।

लौ बनकर हम युग के कुहरे को दाग रहीं।
सन्नाटे में ध्वनियां बनकर हम जाग रहीं।
जीवन का तीर्थ बनी, जीवन की आस्था।

[ रचनाकार: - श्रीकांत वर्मा ]

"उन मुस्कानों की बलि जाऊँ" - वृन्दावनलाल वर्मा

 "उन मुस्कानों की बलि जाऊँ"

उन मुस्कानों की बलि जाऊँ
सती की चिता की दीपशिखा पर जो लहराती रहती हैं
निर्बल के कण-कण में भी जो ज्योति जगाती रहती है
बलिदानों की ध्वजा निरन्तर जो फ़हराती रहती है
उन बलिदानों से बल पाऊँ उन वरदानों से भर पाऊँ
उन मुस्कानों की बलि जाऊँ।

[ रचनाकार: - वृन्दावनलाल वर्मा ]

August 26, 2010

"विनोद" - वृन्दावनलाल वर्मा

 "विनोद"

है विनोद बिन जीवन भार
है विनोद बिन जड़ संसार
है विनोद बिन बुद्धि असार
है विनोद बिन देह पहार
है विनोद से बुद्धि विकास
ज्ञान-तंतुओं से परकास
शक्ति कवित्व इसी से निकली
ईश भावना इस से उजली।

[ रचनाकार: - वृन्दावनलाल वर्मा ]

August 22, 2010

"राजनीतिज्ञों ने मुझे" - श्रीकांत वर्मा

"राजनीतिज्ञों ने मुझे"

राजनीतिज्ञों ने मुझे पूरी तरह भुला
दिया।
अच्छा ही हुआ।
मुझे भी उन्हें भुला देना चाहिये।

बहुत से मित्र हैं, जिन्होंने आँखे फेर
ली हैं,
कतराने लगे हैं
शायद वे सोचते हैं
अब मेरे पास बचा क्या है?

मैं उन्हें क्या दे सकता हूँ?
और यह सच है
मैं उन्हे कुछ नहीं दे सकता।
मगर कोई मुझसे
मेरा "स्वत्व" नहीं छीन सकता।
मेरी कलम नहीं छीन सकता

यह कलम
जिसे मैंने राजनीति के धूल- धक्कड़ के बीच भी
हिफाजत से रखा
हर हालत में लिखता रहा

पूछो तो इसी के सहारे
जीता रहा
यही मेरी बैसाखी थी
इसी ने मुझसे बार बार कहा,
"हारिये ना हिम्मत बिसारिये ना राम।"
हिम्मत तो मैं कई बार हारा
मगर राम को मैंने
कभी नहीं बिसारा।
यही मेरी कलम
जो इस तरह मेरी है कि किसी और की
नहीं हो सकती
मुझे भवसागर पार करवाएगी
वैतरणी जैसे भी
हो,
पार कर ही लूँगा।

[ रचनाकार: - श्रीकांत वर्मा ]

August 21, 2010

"चेतक की वीरता" - श्यामनारायण पाण्डेय

"चेतक की वीरता"

रणबीच चौकड़ी भर-भर कर
चेतक बन गया निराला था
राणाप्रताप के घोड़े से
पड़ गया हवा का पाला था

जो तनिक हवा से बाग हिली
लेकर सवार उड जाता था
राणा की पुतली फिरी नहीं
तब तक चेतक मुड जाता था

गिरता न कभी चेतक तन पर
राणाप्रताप का कोड़ा था
वह दौड़ रहा अरिमस्तक पर
वह आसमान का घोड़ा था

था यहीं रहा अब यहाँ नहीं
वह वहीं रहा था यहाँ नहीं
थी जगह न कोई जहाँ नहीं
किस अरि मस्तक पर कहाँ नहीं

निर्भीक गया वह ढालों में
सरपट दौडा करबालों में
फँस गया शत्रु की चालों में

बढते नद सा वह लहर गया
फिर गया गया फिर ठहर गया
बिकराल बज्रमय बादल सा
अरि की सेना पर घहर गया।

भाला गिर गया गिरा निशंग
हय टापों से खन गया अंग
बैरी समाज रह गया दंग
घोड़े का ऐसा देख रंग

[ रचनाकार: - श्यामनारायण पाण्डेय ]

August 18, 2010

"कोसल में विचारों की कमी है" - श्रीकांत वर्मा

 "कोसल में विचारों की कमी है"

महाराज बधाई हो; महाराज की जय हो !
युद्ध नहीं हुआ –
लौट गये शत्रु ।

वैसे हमारी तैयारी पूरी थी !
चार अक्षौहिणी थीं सेनाएं
दस सहस्र अश्व
लगभग इतने ही हाथी ।

कोई कसर न थी ।
युद्ध होता भी तो
नतीजा यही होता ।

न उनके पास अस्त्र थे
न अश्व
न हाथी
युद्ध हो भी कैसे सकता था !
निहत्थे थे वे ।

उनमें से हरेक अकेला था
और हरेक यह कहता था
प्रत्येक अकेला होता है !
जो भी हो
जय यह आपकी है ।
बधाई हो !

राजसूय पूरा हुआ
आप चक्रवर्ती हुए –

वे सिर्फ़ कुछ प्रश्न छोड़ गये हैं
जैसे कि यह –
कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता
कोसल में विचारों की कमी है ।

[ रचनाकार: - श्रीकांत वर्मा ]

August 15, 2010

"कलिंग" - श्रीकांत वर्मा

"कलिंग"

केवल अशोक लौट रहा है
और सब
कलिंग का पता पूछ रहे हैं

केवल अशोक सिर झुकाये हुए है
और सब
विजेता की तरह चल रहे हैं

केवल अशोक के कानों में चीख
गूँज रही है
और सब
हँसते-हँसते दोहरे हो रहे हैं

केवल अशोक ने शस्त्र रख दिये हैं
केवल अशोक
लड़ रहा था।

[ रचनाकार: - श्रीकांत वर्मा ]

"राणा प्रताप की तलवार" - श्यामनारायण पाण्डेय

"राणा प्रताप की तलवार"

चढ़ चेतक पर तलवार उठा,
रखता था भूतल पानी को।
राणा प्रताप सिर काट काट,
करता था सफल जवानी को॥

कलकल बहती थी रणगंगा,
अरिदल को डूब नहाने को।
तलवार वीर की नाव बनी,
चटपट उस पार लगाने को॥

वैरी दल को ललकार गिरी,
वह नागिन सी फुफकार गिरी।
था शोर मौत से बचो बचो,
तलवार गिरी तलवार गिरी॥

पैदल, हयदल, गजदल में,
छप छप करती वह निकल गई।
क्षण कहाँ गई कुछ पता न फिर,
देखो चम-चम वह निकल गई॥

क्षण इधर गई क्षण उधर गई,
क्षण चढ़ी बाढ़ सी उतर गई।
था प्रलय चमकती जिधर गई,
क्षण शोर हो गया किधर गई॥

लहराती थी सिर काट काट,
बलखाती थी भू पाट पाट।
बिखराती अवयव बाट बाट,
तनती थी लोहू चाट चाट॥

क्षण भीषण हलचल मचा मचा,
राणा कर की तलवार बढ़ी।
था शोर रक्त पीने को यह,
रण-चंडी जीभ पसार बढ़ी॥

[ रचनाकार: - श्यामनारायण पाण्डेय ]

August 12, 2010

"टूटी पडी है परम्परा" - श्रीकांत वर्मा

"टूटी पडी है परम्परा"

टूटी पडी है परम्परा
शिव के धनुष-सी रखी रही परम्परा
कितने निपुण आए-गए
धनुर्धारी।
कौन इसे बौहे? और कौन इसे
कानों तक खींचे?
एक प्रश्नचिह्न-सी पडी रही परम्परा।
मैं सबमें छोटा और सबसे अल्पायु-
मैं भविष्यवासी।
मैंने छुआ ही था, जीवित हो उठी।
मैंने जो प्रत्यंचा खींची
तो टूट गई परम्परा।
मुझ पर दायित्व।
कंधों पर मेरे ज्यों, सहसा रख दी हो
किसी ने वसुंधरा।
सौंप मझे मर्यादाहीन लोक
टूटी पडी है परम्परा।

[ रचनाकार: - श्रीकांत वर्मा ]

August 10, 2010

"भद्रवंश के प्रेत" - श्रीकांत वर्मा

"भद्रवंश के प्रेत"

छज्जों और आईनों, ट्रेनों और दूरबीन
कारों और पुस्तकों
यानी सुविधाओं के अद्वितीय चश्मों से
मुझे देखने वाले
अपमानित नगरों में सम्मानित नागरिकों
मुझे ध्यान से देखो
जेबी झिल्लियाँ सब उतार
मुझे नंगी आँखों देखो
पहिचानो।

मैं इस इतिहास के अँधेरे में, एक सड़ी और
फूली लाश सा
घिसटने वाला प्राणी कौन हूँ
ओ विपन्न सदियों के प्रभुजन, सम्पन्न जन।
मुझको पहिचानो
कुबडे, बूढे, कोढी, दैत्य सा तुम्हारे
हॉलो, शेल्फों, ड्रायर या ड्रेसिंग टेबल में
छिपने वाला प्राणी मैं कौन हूँ
पहिचानो, मुझको पहिचानो।

मेरी इस कूबड़ को जरा पास से देखो
मेरी गिलगिली पिलपिली बाँहें अपनें
दास्तानों से परे
अँगुलियों से महसूस करो
शायद तुमने इनको ग्रीवा के गिर्द कभी
पुष्प के धनुष सा भेंटा हो।

मुझसे मत बिचको
मुझे, घृणा की सिकुड़ी आँखों मत देखो
मुझसे मत भागो।
मेरे सिकुड़े टेढे ओठों पर ओठ रखो।
शायद तुमने इनमे कभी
किसी का
पूरा माँसल अस्तित्व कहीं भोगा होगा।
मेरी बह रही लार पर मत घिन लाओ
यह तुम हो
जो मुझसे हो कर गुजरे थे।
मेरी गल रही अंगुलियाँ देखो
पहचानो।
क्या मेरे सारे हस्ताक्षर धुंधला गये?
क्यों तुम मुझसे हरदम कटते हो?
क्यों मैं तुम्हारे सपनों में आ धमकता हूँ?
क्यों मैं तुम्हारे बच्चों को नहीं दिखता?
तुमको ही दिखता हूँ
जाओ
अपने बच्चों से पूछो।

[ रचनाकार: - श्रीकांत वर्मा ]

August 5, 2010

"नव्य न्याय का अनुशासन-1" - लक्ष्मीकांत वर्मा

"नव्य न्याय का अनुशासन-1" 

तुम्हारे इर्द-गिर्द फैलती अफ़वाहों से
मैं नहीं घबराता
तुम्हारे आक्रोश, क्रोध और आदेश से भी
मैं नहीं डरता
जब तुम चीख़ते-चिल्लाते, शोर मचाते हो
मैं तुम्हें आश्चर्य से नहीं देखता,
क़िताबों को फाड़कर जब तुम होली जलाते हो
हर हरियाली को चिता की सुलगती आग में--
बदलना चाहते हो,

मौलश्री की घनी छाया में आफ़ताब
वट-वृक्षों की वृद्ध जटाओं में सैलाब
और गुलमोहर की सुर्ख़ियों में
मशालों की रोशनी
पहाड़ों की चढ़ाइयों पर ज्वालामुखी
उगने की सभी आकांक्षाएँ मुझे ललकारती हैं
और मैं कुपित नहीं होता।

मैं निरन्तर तुम्हारे साथ होता हूँ
ख़ामोश लेकिन बहुत नज़दीक
मेरी ख़ामोश पुतलियाँ देखती हैं तुम्हारे चेहरे
मेरे कान सुनना चाहते हैं वे आहटें
कि तुम कब अपनी आग को
पराई व्यथा से जोड़ोगे
अपने दर्द को उस हद तक ले जाओगे
जिसमें केवल तुम्हारा दर्द नहीं
दूसरे का दर्द भी शामिल होगा।
कब तुम अकेले समूह बन पाओगे
और समूह को अकेला छोड़ दोगे
क्योंकि तब मेरी ख़ामोशी
तुम्हारी आवाज़ के साथ होगी
और मैं निरन्तर तुम्हारे साथ हूंगा
कभी अकेला समूह-सा
कभी समूह-सा अकेला

ईसा ने कहा : उत्सर्गित होने के पहले
मैंने जो सलीब कंधों पर रखी थी
तो लगा था-- मैं अकेला हूँ
लेकिन जब चढ़ने लगा सलीब लादे चढ़ाइयाँ
मुझे लगा मेरे कन्धों पर सलीब नहीं
पूरे समूह की आस्था है
एक ब्रह्माण्ड ही मेरे साथ गतिमान है
किन्तु जब मैं पुनर्भाव में लौटा
तो नितान्त अकेला था।
[ रचनाकार: - लक्ष्मीकांत वर्मा ]

"नव्य न्याय का अनुशासन-2" - लक्ष्मीकांत वर्मा

"नव्य न्याय का अनुशासन-2"

तुम गुलाब की क्यारियों में आग लगना चाहते हो
लगा दो : किन्तु गुलाब की सुगन्ध बचा लो
तुम हरी-भरी लताओं को लपटों में बदलना चाहते हो
बदल दो : किन्तु हरियाली मन में बसा लो

तुम प्रतिमाएँ तोड़ना चाहते हो
तोड़ दो : किन्तु आस्थाएँ ढाल लो
तुम ज्ञान को नकारना चाहते हो
नकार दो : किन्तु अनुभवों को संजो लो
तुम लक्ष्मण रेखाएँ मिटाना चाहते हो
मिटा दो : पर मर्यादाएँ सम्भाल लो
दीवारोंपर नारे और चौराहों पर क्रान्तियाँ लाना चाहते हो
ले आओ : पर शब्दों को संयम भाषा का मर्म दो

सुनो,
मैं तुम्हारे बदहवास चेहरों को
क़िताब मानता हूँ
इसलिए उठो मेरी जिज्ञासाएँ सम्भाल लो

तभी वैशम्पायन ने कहा--
बाणभट्ट
समास की भाषा नहीं
मुझे समास-मुक्त करके देखो
मुझे जीवन दो

तुम्हें मुक्ति मिलेगी।

[ रचनाकार: - लक्ष्मीकांत वर्मा ]

August 4, 2010

"महामहिम" - श्रीकांत वर्मा

"महामहिम"

महामहिम!
चोर दरवाजे से निकल चलिये!
बाहर
हत्यारे हैं!
बहुक्म आप
खोल दिये मैनें
जेल के दरवाजे,
तोड़ दिया था
करोड़ वर्षों का सन्नाटा
महामहिम!
ड़रिये! निकल चलिये!
किसी की आँखों में
हया नहीं
ईश्वर का भय नहीं
कोई नहीं कहेगा
"धन्यवाद"!
सबके हाँथों में
कानून की किताब है
हाथ हिला पूछते हैं
किसने लिखी थी
यह कानून की किताब?

[ रचनाकार: - श्रीकांत वर्मा ]

August 3, 2010

"एक दर्द और कई सीमाएं" - लक्ष्मीकांत वर्मा

"एक दर्द और कई सीमाएं"

हां
यह मैं हूँ
अकेला राहगीरों से अलग
मगर
मेरे साथ भी एक कारवां है
जिसे तुम कभी नहीं देखोगे
(मैं-
महज राख का गुबार नहीं
राह की गति भी हूँ
जिसे तुम नहीं समझोगे)

वह विराट् स्वप्न जिसके समक्ष सारा ब्राह्मण्ड केवल तीन
कदमों में बंध जाता है
वह अस्तित्व जिसमें केवल अनुभूतियों के क्षण समय के
मापदण्ड होते हैं
सच मानों मैं अकेला हूँ, इतना अकेला जितना प्रत्येक नक्षत्र दूसरे से अपरिचित किंतु अपरिचिति
की किरणों से प्रदीप्त
अकेला किंतु उस सामूहिक चेतना से अभिभूत...
शायद माला के उस मणि-सा जो केवल इसीलिए शोभा पाता है,
क्योंकि वह माला के दानों से सम्बध्द किन्तु पृथक होता है

मेरी सीमाएं- अस्थि-पंजर देह की, पिण्ड की, दृष्टि की, बुध्दि की
लेकिन मैं तुम्हारी उधार ली हुई दृष्टि लेकर क्या करूंगा, क्योंकि वह दृष्टि मेरी नहीं होगी, तुम्हारी
होगी
मेरे अस्तित्व के नाश पर वह बनी होगी।

मेरी सीमाएं हैं- आस्था की, विचारों की, संस्कारों की लेकिन मैं केवल अपनी आस्था लेकर क्या
करूंगा, क्योंकि तुम केवल समूह को पूजते हो
जिसमें सब कुछ है, केवल व्यक्ति नहीं है!

एक गलत अनुभूति के माध्यम से दूसरा सही निष्कर्ष
मैं आज व्यस्त हूँ
क्योंकि पडा-पडा सुन रहा हूँ
पडा-पडा देख रहा हूँ
पडा-पडा चल रहा हूँ
लोग गलत कहते हैं
पडे-पडे आदमी काहिल
हो जाता है।

बाथरूम का शावर खुला है
टैप से बूंद-बूंद पानी टपक रहा है
टेबू बडा शरारती है
मेरे पास से जाने कब उठा
और जाकर बम्बे में टपकने लगा।

मेरे बगैर उठे
दुनिया बदल गई
बच्चे धूप में चले गए
चारपाइयां आंगन में उल्टी खडी हो गई
मैं पडे-पडे देख रहा हूँ
यह बेडरूम
ड्राइंग रूम में बदल गया

सुबह दोपहर हो गई
कैलेण्डर की तारीख बदल गई
मैं पडा-पडा देखता रहा
जल्दी-जल्दी उठा
पत्नी पर बिगडा
आईने में अपनी शक्ल की
हजामत बनाई
बिना नहाए ही कपडे पहनने लगा
धुला कपडा नहीं मिला
गंदा ही पहन लिया

जूते को पहले उलटा पहना
कुछ तकलीफ हुई, लेकिन नही समझा
कोट पर ब्रश नहीं किया
पैण्ट की क्रीज सरगपताली ही रहने दिया।
रात को कोसा
क्यों नींद नहीं आई
आई तो सुबह क्यों चली गई
बस पर बस
आदमी पर आदमी
सडके विधवा-सी नजर आई
मुझे अपनी विधवा भाभी
याद आ गई
उन्होंने कहा था :
उनका लिवर खराब है
घडी की स्प्रिग की तरह।

रोड नं. एक
काशीपुरा
बाबू काशीनाथ मर गए
याद आया
इतवार को मरे थे
आज इतवार है।

[ रचनाकार: - लक्ष्मीकांत वर्मा ]

August 1, 2010

"प्यार में रोना" - विष्णु नागर

 "प्यार में रोना"

प्यार ने कई बार रुलाया मुझे
मुश्किलों से ज्यादा प्यार ने
मैं यहाँ प्यार की मुश्किलों की बात नहीं कर रहा
न मुश्किलों में प्यार की।


[ रचनाकार: - विष्णु नागर ]