September 5, 2010

"कदम्ब-कालिन्दी" - अज्ञेय

 "कदम्ब-कालिन्दी"

(पहला वाचन)

टेर वंशी की

यमुन के पार
अपने-आप झुक आई
कदम की डार।
द्वार पर भर, गहर,
ठिठकी राधिका के नैन
झरे कँप कर
दो चमकते फूल।
फिर वही सूना अंधेरा
कदम सहमा
घुप कलिन्दी कूल !

 (दूसरा वाचन)

अलस कालिन्दी-- कि काँपी

टेर वंशी की
नदी के पार।
कौन दूभर भार
अपने-आप
झुक आई कदम की डार
धरा पर बरबस झरे दो फूल।

द्वार थोड़ा हिले--
झरे, झपके राधिका के नैन
अलक्षित टूट कर
दो गिरे तारक बूंद।
फिर-- उसी बहती नदी का
वही सूना कूल !--
पार-- धीरज-भरी
फिर वह रही वंशी टेर !

[ रचनाकार: - सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' ]

No comments:

Post a Comment