"कदम्ब-कालिन्दी"
(पहला वाचन)
टेर वंशी की
यमुन के पार
अपने-आप झुक आई
कदम की डार।
द्वार पर भर, गहर,
ठिठकी राधिका के नैन
झरे कँप कर
दो चमकते फूल।
फिर वही सूना अंधेरा
कदम सहमा
घुप कलिन्दी कूल !
(दूसरा वाचन)
अलस कालिन्दी-- कि काँपी
टेर वंशी की
नदी के पार।
कौन दूभर भार
अपने-आप
झुक आई कदम की डार
धरा पर बरबस झरे दो फूल।
द्वार थोड़ा हिले--
झरे, झपके राधिका के नैन
अलक्षित टूट कर
दो गिरे तारक बूंद।
फिर-- उसी बहती नदी का
वही सूना कूल !--
पार-- धीरज-भरी
फिर वह रही वंशी टेर !
[ रचनाकार: - सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' ]
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