"कतकी पूनो"
- छिटक रही है चांदनी,
कलगी-मौर सजाव ले
कास हुए हैं बावले,
पकी ज्वार से निकल शशों की जोड़ी गई फलांगती--
सन्नाटे में बाँक नदी की जगी चमक कर झाँकती !
- कुहरा झीना और महीन,
उजली-लालिम मालती
गन्ध के डोरे डालती;
मन में दुबकी है हुलास ज्यों परछाईं हो चोर की--
तेरी बाट अगोरते ये आँखें हुईं चकोर की !
[ रचनाकार: - सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' ]
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