July 29, 2010

"पानी हूँ इसलिए" - विष्णु नागर

"पानी हूँ इसलिए"

मैं पानी हूँ इसलिए मुझ पर आरोप नहीं लगता
कि मैं बर्फ क्यों बन गया
कि मैं भाप क्यों बन गया
या मैं तब ठंडा क्यों था
और अब गर्म क्यों हो गया हूँ
या मैं हर बर्तन के आकार का क्यों हो जाता हूँ।

फिर भी मैं शुक्रगुजार हूँ कि लोग
मेरे बारे में राय बनाने से पहले यह याद रखते हैं
कि मैं पानी हूँ
और यह सलाह नहीं देते
कि मैं कब तक पानी के परंपरागत गुण धर्म निभाता रहूँगा।

[ रचनाकार: - विष्णु नागर ]

July 27, 2010

"पंथ में सांझ" - नामवर सिंह

"पंथ में सांझ"

पथ में सांझ
पहाड़ियाँ ऊपर
पीछे अँके झरने का पुकारना।
सीकरों की मेहराब की छाँव में
छूटे हुए कुछ का ठुनकारना।
एक ही धार में डूबते
दो मनों का टकराकर
दीठ निवारना।
याद है : चीड़ी की टूक से चांद पै
तैरती आँख में आँख का ढारना?

[ रचनाकार: नामवर सिंह ] 

July 24, 2010

"आहटें" - विष्णु नागर

 "आहटें"

मैं क्यों अनजान बना बैठा हूँ
जैसे मुर्गा हूँ
क्यों कुकड़ू कूँ करता घूम रहा हूँ
जैसे मैं बिल्कुल बैचेन नहीं हूँ
क्यों अपनी कलगी पर कुछ ज्यादा इतराने लगा हूँ
क्यों पिंजड़े में बन्द जब कसाई की दूकान पर
ले जाया जा रहा हूँ तो
ऐसा बेपरवाह नजर आ रहा हूँ जैसे कि सैर पर जा रहा हूँ
क्यों मैं पंख फड़फड़ाने, चीखने और चुपचाप मर जाने में
इतना विश्वास करने लगा हूँ
क्यों मैं मानकर चल रहा हूँ कि मेरे जिबह होने पर
कहीं कुछ होगा नहीं
क्यों मैं खाने मे लजीज लगने की तैयारी में जुटा हूँ
क्यों मैं बेतरह नस्ल का मुर्गा बनने की प्रतियोगिता मं शामिल हूँ
और क्यों मैं आपसे चाह रहा हूँ कि कृपया आप मुझे मनुष्य ही समझे ।

[ रचनाकार: - विष्णु नागर ]

"हिमालय और हम" - गोपाल सिंह नेपाली

"हिमालय और हम"

गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है।
[1]
इतनी ऊँची इसकी चोटी कि सकल धरती का ताज यही।
पर्वत-पहाड़ से भरी धरा पर केवल पर्वतराज यही।।
अंबर में सिर, पाताल चरण
मन इसका गंगा का बचपन
तन वरण-वरण मुख निरावरण
इसकी छाया में जो भी है, वह मस्‍तक नहीं झुकाता है।
ग‍िरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है।।
[2]
अरूणोदय की पहली लाली इसको ही चूम निखर जाती।
फिर संध्‍या की अंतिम लाली इस पर ही झूम बिखर जाती।।
इन शिखरों की माया ऐसी
जैसे प्रभात, संध्‍या वैसी
अमरों को फिर चिंता कैसी?
इस धरती का हर लाल खुशी से उदय-अस्‍त अपनाता है।
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है।।
[3]
हर संध्‍या को इसकी छाया सागर-सी लंबी होती है।
हर सुबह वही फिर गंगा की चादर-सी लंबी होती है।।
इसकी छाया में रंग गहरा
है देश हरा, प्रदेश हरा
हर मौसम है, संदेश भरा
इसका पद-तल छूने वाला वेदों की गाथा गाता है।
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है।।
[4]
जैसा यह अटल, अडिग-अविचल, वैसे ही हैं भारतवासी।
है अमर हिमालय धरती पर, तो भारतवासी अविनाशी।।
कोई क्‍या हमको ललकारे
हम कभी न हिंसा से हारे
दु:ख देकर हमको क्‍या मारे
गंगा का जल जो भी पी ले, वह दु:ख में भी मुसकाता है।
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है।।
[5]
टकराते हैं इससे बादल, तो खुद पानी हो जाते हैं।
तूफ़ान चले आते हैं, तो ठोकर खाकर सो जाते हैं।
जब-जब जनता को विपदा दी
तब-तब निकले लाखों गाँधी
तलवारों-सी टूटी आँधी
इसकी छाया में तूफ़ान, चिरागों से शरमाता है।
गिरिराज, हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है।

[ रचनाकार: - गोपाल सिंह नेपाली ]

July 20, 2010

"ताकत" - विष्णु नागर

"ताकत"

मेरी ताकत यह है
कि मैं हर बार उठ कर खड़ा हो जाता हूँ
जब तक कि मर ही नहीं जाता

‌और मरकर भी ऐसा नहीं है
कि मैं खड़ा होने की कोशिश नहीं करूँगा
चाहे लुड़क ही पड़ूँ।

[ रचनाकार: - विष्णु नागर ]

July 17, 2010

"मां सब कुछ कर सकती है" - विष्णु नागर

"मां सब कुछ कर सकती है"

मां सब कुछ कर सकती है
रात-रात भर बिना पलक झपकाए जाग सकती है
पूरा-पूरा दिन घर में खट सकती है
धरती से ज्यादा धैर्य रख सकती है
बर्फ़ से तेजी से पिघल सकती है
हिरणी से ज्यादा तेज दौड़कर खुद को भी चकित कर सकती है
आग में कूद सकती है
तैरती रह सकती है समुद्रों में
देश-परदेश शहर-गांव झुग्गी-झोंपड़ी सड़क पर भी रह सकती है

वह शेरनी से ज्यादा खतरनाक
लोहे से ज्यादा कठोर सिद्ध हो सकती है
वह उत्तरी ध्रुव से ज्यादा ठंडी और
रोटी से ज्यादा मुलायम साबित हो सकती है
वह तेल से भी ज्यादा देर तक खौलती रह सकती है
चट्टान से भी ज्यादा मजबूत साबित हो सकती है
वह फांद सकती है ऊंची-से-ऊंची दीवारें
बिल्ली की तरह झपट्टा मार सकती है
वह फूस पर लेटकर महलों में रहने का सुख भोग सकती है
वह फुदक सकती है चिड़िया की मानिंद
जीवन बचाने के लिए वह कहीं से कुछ भी चुरा सकती है
किसी के भी पास जाकर वह गिड़गिड़ा सकती है
तलवार की धार पर दौड़ सकती है वह लहुलुहान हुए बिना
वह देर तक जल सकती है राख हुए बगैर
वह बुझ सकती है पानी के बिना

वह सब कुछ कर सकती है इसका यह मतलब नहीं
कि उससे सब कुछ करवा लेना चाहिए
उसे इस्तेमाल करनेवालों को गच्चा देना भी खूब आता है
और यह काम वह चेहरे से बिना कुछ कहे कर सकती है।

[ रचनाकार: - विष्णु नागर ]

July 12, 2010

"बुरा ज़माना, बुरा ज़माना" - नामवर सिंह

"बुरा ज़माना, बुरा ज़माना"

बुरा ज़माना, बुरा ज़माना, बुरा ज़माना
लेकिन मुझे ज़माने से कुछ भी तो शिकवा
नहीं, नहीं है दुख कि क्यों हुआ मेरा आना
ऎसे युग में जिसमें ऎसी ही बही हवा
गंध हो गई मानव की मानव को दुस्सह।
शिकवा मुझ को है ज़रूर लेकिन वह तुम से--
तुम से जो मनुष्य होकर भी गुम-सुम से
पड़े कोसते हो बस अपने युग को रह-रह
कोसेगा तुम को अतीत, कोसेगा भावी
वर्तमान के मेधा! बड़े भाग से तुम को
मानव जय का अंतिम युद्ध मिला है चमको
ओ सहस्र जन-पद-निर्मित चिर पथ के दावी!
तोड़ अद्रि का वक्ष क्षुद्र तृण ने ललकारा
बद्ध गर्भ के अर्भक ने है तुम्हें पुकारा।

[ रचनाकार: - नामवर सिंह ]

July 8, 2010

"अखिल भारतीय लुटेरा" - विष्णु नागर

"अखिल भारतीय लुटेरा"

(१)

दिल्ली का लुटेरा था अखिल भारतीय था
फर्राटेदार अंग्रेजी बोलता था
लुटनेवाला चूँकि बाहर से आया था
इसलिए फर्राटेदार हिंदी भी नहीं बोलता था
लुटेरे को निर्दोष साबित होना ही था
लुटनेवाले ने उस दिन ईश्वर से सिर्फ एक ही प्रार्थना की कि
भगवान मेरे बच्चों को इस दिल्ली में फर्राटेदार अंग्रेजी बोलनेवाला जरूर बनाए


और ईश्वर ने उसके बच्चों को तो नहीं
मगर उसके बच्चों के बच्चों को जरूर इस योग्य बना दिया।

(२)

लूट के इतने तरीके हैं
और इतने ईजाद होते जा रहे हैं
कि लुटेरों की कई जातियाँ और संप्रदाय बन गए हैं
लेकिन इनमें इतना सौमनस्य है कि
लुटनेवाला भी चाहने लगता है कि किसी दिन वह भी लुटेरा बन कर दिखाएगा।

(३)

लूट का धंधा इतना संस्थागत हो चुका है
कि लूटनेवाले को शिकायत तभी होती है
जब लुटेरा चाकू तान कर सुनसान रस्ते पर खड़ा हो जाए
वरना वह लुट कर चला आता है
और एक कप चाय लेकर टी.वी. देखते हुए
अपनी थकान उतारता है।

(४)

जरूरी नहीं कि जो लुट रहा हो
वह लुटेरा न हो
हर लुटेरा यह अच्छी तरह जानता है कि लूट का लाइसेंस सिर्फ उसे नहीं मिला है
सबको अपने-अपने ठीये पर लूटने का हक है
इस स्थिति में लुटनेवाला अपने लुटेरे से सिर्फ यह सीखने की कोशिश करता है कि
क्या इसने लूटने का कोई तरीका ईजाद कर लिया है जिसकी नकल की जा सकती है।

(५)

आजकल लुटेरे आमंत्रित करते है कि
हम लुट रहे हैं आओ हमें लूटो
फलां जगह फलां दिन फलां समय
और लुटेरों को भी लूटने चले आते हैं
ठट्ठ के ठट्ठ लोग
लुटेरे खुश हैं कि लूटने की यह तरकीब सफल रही
लूटनेवाले खुश हैं कि लुटेरे कितने मजबूर कर दिए गए हैं
कि वे बुलाते हैं और हम लूट कर सुरक्षित घर चले आते हैं।

(६)

होते-होते एक दिन इतने लुटेरे हो गए कि
फिर लुटेरा एक ही लूटनेवाला बचा
और ये लुटनेवाले पहले ही इतने लुट चुके थे कि
खबरें आने लगीं कि लुटेरे आत्महत्या कर रहे हैं
इस पर इतने आँसू बहाए गए कि लुटनेवाले भी रोने लगे
जिससे इतनी गीली हो गई धरती कि हमेशा के लिए दलदली हो गई।

[ रचनाकार: - विष्णु नागर ]

July 5, 2010

"क्या कव्वा भी चहचहा रहा था" - विष्णु नागर

"क्या कव्वा भी चहचहा रहा था"

उसने कहा -
आज क्या सुबह थी
क्या हवा थी
कितनी मस्ती से पक्षी चहचहा रहे थे
मैंने कहा रुको
क्या तुम्हारा मतलब ये है
कि कव्वे भी चहचहा रहे थे?

[ रचनाकार: - विष्णु नागर ]

July 2, 2010

"आज तुम्हारा जन्मदिवस" - नामवर सिंह

"आज तुम्हारा जन्मदिवस"

आज तुम्हारा जन्मदिवस, यूँ ही यह संध्या
भी चली गई, किंतु अभागा मैं न जा सका
समुख तुम्हारे और नदी तट भटका-भटका
कभी देखता हाथ कभी लेखनी अबन्ध्या।
पार हाट, शायद मेल; रंग-रंग गुब्बारे।
उठते लघु-लघु हाथ,सीटियाँ; शिशु सजे-धजे
मचल रहे... सोचूँ कि अचानक दूर छ: बजे।
पथ, इमली में भरा व्योम,आ बैठे तारे
'सेवा उपवन',पुस्पमित्र गंधवह आ लगा
मस्तक कंकड़ भरा किसी ने ज्यों हिला दिया।
हर सुंदर को देख सोचता क्यों मिला हिया
यदि उससे वंचित रह जाता तू...?
क्षमा मत करो वत्स, आ गया दिन ही ऎसा
आँख खोलती कलियाँ भी कहती हैं पैसा।

[ रचनाकार: - नामवर सिंह ]