July 24, 2010

"आहटें" - विष्णु नागर

 "आहटें"

मैं क्यों अनजान बना बैठा हूँ
जैसे मुर्गा हूँ
क्यों कुकड़ू कूँ करता घूम रहा हूँ
जैसे मैं बिल्कुल बैचेन नहीं हूँ
क्यों अपनी कलगी पर कुछ ज्यादा इतराने लगा हूँ
क्यों पिंजड़े में बन्द जब कसाई की दूकान पर
ले जाया जा रहा हूँ तो
ऐसा बेपरवाह नजर आ रहा हूँ जैसे कि सैर पर जा रहा हूँ
क्यों मैं पंख फड़फड़ाने, चीखने और चुपचाप मर जाने में
इतना विश्वास करने लगा हूँ
क्यों मैं मानकर चल रहा हूँ कि मेरे जिबह होने पर
कहीं कुछ होगा नहीं
क्यों मैं खाने मे लजीज लगने की तैयारी में जुटा हूँ
क्यों मैं बेतरह नस्ल का मुर्गा बनने की प्रतियोगिता मं शामिल हूँ
और क्यों मैं आपसे चाह रहा हूँ कि कृपया आप मुझे मनुष्य ही समझे ।

[ रचनाकार: - विष्णु नागर ]

No comments:

Post a Comment